आज तक जो न मिरे अश्क-ए-रवाँ तक पहुँचे ग़ैर मुमकिन है कि वो दर्द-ए-निहाँ तक पहुँचे हाए तालिब जो हुए काकुल-ए-ख़मदार के हम देखिए आप ही ख़ुद अपने ज़ियाँ तक पहुँचे याद करने पे तुझे ऐसे भी आते हैं ख़याल आज तक जो न कभी मेरे गुमाँ तक पहुँचे काश ऐसी हो अता क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार मुझे मैं यहाँ सोचूँ मिरी बात वहाँ तक पहुँचे कू-ए-जानाँ के लिए ही नहीं मख़्सूस रखा मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे ख़ूब देता है मुझे लुत्फ़-ए-सफ़र आप का वो बारहा फ़ोन पे कहना कि कहाँ तक पहुँचे राह भटकी है मसर्रत मिरे कूचे से मगर रंज दुनिया के सभी मेरे मकाँ तक पहुँचे देर से ही सही पर देख मिरे नक़्श-ए-क़दम दश्त में क़ैस के हर एक निशाँ तक पहुँचे शायरी का तो मुझे शौक़ नहीं था 'अफ़ज़ल' उन की नज़रों से गिरे हैं तो यहाँ तक पहुँचे