आख़िरी अश्क है और पहली अज़ा-दारी है मज्लिस-ए-हिज्र बपा करने की तय्यारी है जिस की जो मर्ज़ी हो वो रख के चला जाता है मेरी दुनिया है कि अहबाब की अलमारी है नूर के हाथ पे बै'अत है मिरी आँखों की अब अँधेरों की तरफ़ देखना ग़द्दारी है ढूँडने निकला हूँ मैं उस के पसंदीदा फूल मेरी इस शहर में ये पहली ख़रीदारी है राख से ले के उठूँगा मैं ख़ज़ाने का सुराग़ मेरा इस आग में जल बुझना अदाकारी है झूटा खाने से भी लग जाती हो आदत जैसे ये मोहब्बत भी तिरे दर की नमक-ख़्वारी है नीम के पेड़ से करना है जिन्हें शहद वसूल उन ज़मानों की तरफ़ मेरा सफ़र जारी है जाने किस शख़्स के पाँव को छुआ है उस ने तेज़ आँधी में भी सहरा पे सुकूँ तारी है नर्म गालों पे सरकते हुए सूरज का ग़ुरूब ये नज़ारा है कि रंगों की दुकाँ-दारी है बाँट देता हूँ मोहब्बत को फ़क़ीरों में 'मुनीर' ये भी पुरखों की विरासत से वफ़ादारी है