आँखों का है क़ुसूर अगर वो अयाँ नहीं वर्ना तो किस मकाँ में मकीं ला-मकाँ नहीं हर शय का कुछ न कुछ यहाँ मक़्सद ज़रूर है इस काएनात में कहीं कुछ राएगाँ नहीं हद है अगर तो संग-तराशों के फ़न की है पत्थर में वर्ना सूरतें क्या क्या निहाँ नहीं हद्द-ए-नज़र है जिस पे है छत का गुमाँ हमें वर्ना ज़मीं के सर पे कोई आसमाँ नहीं मुझ में न रंग ढूँडिए 'ग़ालिब' या 'मीर' का मिलता किसी से भी मिरा तर्ज़-ए-बयाँ नहीं क्या लुत्फ़ शायरी का उठाएँगे बद-नसीब सीखी जिन्हों ने ऐ 'सदा' उर्दू ज़बाँ नहीं