अब सोचता हूँ उम्र-ए-दो-रोज़ा से क्या मिला दुनिया को क्या दिया मुझे दुनिया से क्या मिला जो कम-निगाह थे वही अहल-ए-नज़र बने हम को हमारे दीदा-ए-बीना से क्या मिला दिल को दिए हैं ज़ौक़-ए-तमन्ना ने सौ फ़रेब दिल को मगर फ़रेब-ए-तमन्ना से क्या मिला इरफ़ान-ए-शौक़ जोश-ए-जुनूँ ज़ौक़-ए-बंदगी उन की तलब थी और मुझे क्या से क्या मिला दिल है कि रंग-ओ-बू के तलातुम में ग़र्क़ है मैं क्या कहूँ कि उस गुल-ए-रा'ना से क्या मिला वो मुतमइन हैं अहद-ए-रिफ़ाक़त को तोड़ कर हम मुन्फ़इल कि वा'दा-ए-फ़र्दा से क्या मिला दामन में आज ख़ार हैं छाले हैं पाँव में गुलशन से क्या मिला मुझे सहरा से क्या मिला मेरे सुरूर-ए-शौक़ ने बे-ख़ुद किया मुझे वर्ना ख़ुमार बादा-ए-सहबा से क्या मिला ताब-ए-नज़र नहीं सही ज़ौक़-ए-नज़र तो है दिल को ख़बर से सई-ए-तमाशा से क्या मिला क्या शाम-ए-आरज़ू से 'मुबारक' करें 'उमीद' हम को हमारी सुब्ह-ए-तमन्ना से क्या मिला