अब तिरे हिज्र में इक पल न गुज़ारा जाए ये न हो क़ैस तिरा दश्त में मारा जाए उन के दिल और ज़बाँ नर्म हुआ करते हैं दश्त वालों को मोहब्बत से पुकारा जाए मुझ को मंज़िल पे नहीं और कहीं जाना है मुझ को मंज़िल से बहुत दूर उतारा जाए ज़िंदगी है मिरे महबूब अज़िय्यत वाली ये तिरी ज़ुल्फ़ नहीं जिस को सँवारा जाए जी तो करता है कि आँखों में मुक़य्यद कर लूँ मेरी आँखों से न महरूम नज़ारा जाए ये जो अश्कों का समुंदर नज़र आता है इसे आँख की साहिली पट्टी पे उतारा जाए फिर भी रहती है कमी नोक-पलक में बाक़ी वो ग़ज़ल जैसा बदन जितना सँवारा जाए उन के एहसान ज़माने पे बहुत हैं 'जामी' कोई भी फल न दरख़्तों से उतारा जाए