अब यहाँ कोई नहीं पहले यहाँ था कोई जिस के दम से ये मकाँ और मकाँ था कोई दायरा दायरा था जिस से वो मरकज़ न रहा जब वो था नुक़्ता-ए-बे-क़िब्ला कहाँ था कोई नंग-ए-मैदाँ है जो अब ज़ीनत-ए-मैदाँ था कभी अब जहाँ गुम हूँ वहाँ पहले रवाँ था कोई मेरी शाख़ें मिरे पत्ते मुझे सब छोड़ गए जैसे मैं बाइस-ए-यलग़ार-ए-ख़िज़ाँ था कोई यही साए थे मगर तेज़ थी जब शौक़ की लौ फ़ितना-ए-दिल था कोई आफ़त-ए-जाँ था कोई हूँ वो लम्हा कि न मानोगे रहूँगा जब तक न रहूँगा तो ख़याल आएगा हाँ था कोई राज़ मेरा न खुलेगा ये खुलेगा मिरे ब'अद कुछ न था जिस पे मुक़र्रर निगराँ था कोई आसमानों से तू क्या तोड़ के लाएगा 'मुहिब' क़हत क्या चाँद के टुकड़ों का यहाँ था कोई