ऐ हवा इज़्न-ए-सफ़र दे बादबाँ मुंतज़िर हैं रास्तों के दरमियाँ अब नज़र में दश्त की वक़’अत नहीं आँख में फैला हुआ है आसमाँ अब कहाँ पर तोलने की आरज़ू अब तो मैं हूँ और मेरा आशियाँ जाग उट्ठा हूँ मगर आँखों में है नींद का एहसास ख़्वाबों का धुआँ मैं जहाँ के सामने फैलाऊँ हाथ और तू ख़ामोश पत्थर की ज़बाँ