अकेले-पन की अज़िय्यत से रू-शनास रहे असीर लोग हमेशा ही बद-हवास रहे वो ख़ुद मिले न मिले पर तलब तो हो उस की कुआँ रहे न रहे पर हमारी प्यास रहे किसी के वास्ते क़तरा शराब भी न रही किसी के वास्ते अश्कों-भरे गिलास रहे वो चाहता है बिछड़ कर भी ख़ुश दिखाई दूँ वो चाहता है कि मुर्दा बदन पे मास रहे किसी भी दिल से कोई रहगुज़र न हो यानी हर एक घर के दरीचे में सब्ज़ घास रहे अब इस से बढ़ के भला इज़्तिराब क्या होगा कि शान पीर को सुन के भी दिल उदास रहे किसान हैं सो दुपट्टों की ख़ैर माँगते हैं कि उन के सदक़े ज़मीनों में कुछ कपास रहे ग़ज़ल का क्या है तवाइफ़ ये फिर सुना लेना शराब ला कि यहीं पर ये देवदास रहे हम उस के दिल में मोहब्बत नहीं जगा पाए मज़ीद कैसे बताएँ कि कितने ख़ास रहे