ग़ैरों का जाने उस से कैसा मोआ'मला है अपना तो इस गली में चर्चा बहुत रहा है समझो न यूँ कि हम से वो जान-ए-जाँ ख़फ़ा है अपनी तो कुछ तबीअत बस यूँ ही बे-मज़ा है हाँ अंजुमन में कम है उस को हिजाब लेकिन अंजान सा रहा है तन्हा अगर मिला है इक उम्र की रिफ़ाक़त यूँ ख़त्म हो रही है हम उस से बद-गुमाँ वो हम से गुरेज़-पा है क़ैदी की तरह सोना मुजरिम की तरह उठना ये ज़िंदगी न जाने किस जुर्म की सज़ा है