अपने बातिन में समेटे हुए डर आता है इक परिंदा जो मिरे सर पे उतर आता है बात करता है मोहब्बत में जुनूँ की कोई और इक दाग़ सा सीने पे उभर आता है कश्तियाँ बीच समुंदर में उलट जाती हैं फिर मदद करने को ख़ुद्दार भँवर आता है मुझ पे आलाम की कसरत से तअज्जुब कैसा कुछ दरख़्तों पे कई बार समर आता है सैंकड़ों ज़र्द ख़राशें भी पस-ए-पर्दा हैं ये जो अब चेहरा मिरा साफ़ नज़र आता है फिर किसी दिल में उतरना नहीं मुश्किल 'जामी' शेर-गोई का अगर तुझ को हुनर आता है