भरे हैं आँखों में आँसू मैं रो नहीं सकती कि आँसुओं से कोई ज़ख़्म धो नहीं सकती मैं जीते जी नहीं छोड़ूँगी हाथ से दामन तुझ ऐसा गौहर-ए-नायाब खो नहीं सकती क़दम क़दम पे वो पत्थर बिछा रहा है तो क्या मैं उस की राह में काँटे तो बो नहीं सकती तक़ाज़ा क्या है मसीहाई का समझती हूँ किसी के दिल में भी नश्तर चुभो नहीं सकती किनारा दूर सही नाख़ुदा है मेरा ख़ुदा कोई भी मौज सफ़ीना डुबो नहीं सकती तू आश्ना नहीं तहज़ीब-ए-इश्क़ से शायद मैं अपना 'अहद-ए-वफ़ा तोड़ तो नहीं सकती निगाह दर पे लगी रहती है मिरी 'ज़ोहरा' घर आ न जाएँ वो जब तक मैं सो नहीं सकती