भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए हम अपनी ज़ात को पाताल में उतारे हुए सदा-ए-सूर-ए-सराफ़ील की रसन-बस्ता पलट के जाएँगे इक रोज़ हम पुकारे हुए शिकस्त-ए-ज़ात शिकस्त-ए-हयात भी होगी कि जी न पाएँगे हम हौसलों को हारे हुए ऐ मेरे आईना-रू अब कहीं दिखाई दे इक उम्र बीत गई ख़ाल-ओ-ख़द सँवारे हुए मता-ए-जाँ हैं मिरी उम्र भर का हासिल हैं वो चंद लम्हे तिरे क़ुर्ब में गुज़ारे हुए ज़मीं पे ज़र्रा-ए-बे-नाम थे मगर 'शहबाज़' बुलंदियों पे पहुँच कर हमीं सितारे हुए