बूढ़े बरगद पे शाम हो गई है एक दुनिया तमाम हो गई है पड़ गया है उदासियों का रिवाज जिस की ख़िल्क़त ग़ुलाम हो गई है उस गले के बटन खुले दो तीन रौशनी बे-नियाम हो गई है हम रवय्यों पे काम कर न सके आज तख़रीब आम हो गई है दिन बिताया था फ़िक्र-ए-फ़र्दा में रात माज़ी के नाम हो गई है उस गली में क़ियाम है मेरा बे-घरी बे-मक़ाम हो गई है उस के छूने से भी हरा न हुआ ये ख़िज़ानी दवाम हो गई है आब-ज़ारों पे जम गई काई ज़िंदगी तिश्ना-काम हो गई है साँस आहिस्ता चल रही है 'मुनीर' मौत क्यों तेज़-गाम हो गई है