क्यूँकर भला लगे न वो दिलदार दूर से दूनी बहार देवे है गुलज़ार दूर से नज़दीक ही से शर्म है इतना तो हो भला देखा करें कभी कभी दीदार दूर से जी तो भरा न अपना किसी तरह क्या हुआ देखा अगर उसे सर-ए-बाज़ार दूर से बे-इख़्तियार उठती है बुनियाद-ए-बे-ख़ुदी आती है जब नज़र तिरी दीवार दूर से नज़दीक टुक बिठा के 'हसन' का तो हाल देख आया है क़स्द कर के ये बीमार दूर से