दयार-ए-संग में रह कर भी शीशागर था मैं ज़माना चीख़ रहा था कि बे-ख़बर था मैं लगी थी आँख तो मर्यम की गोद का था गुमाँ खुली जब आँख तो देखा सलीब पर था मैं अमाँ किसे थी मिरे साए में जो रुकता कोई ख़ुद अपनी आग में जलता हुआ शजर था मैं तमाम उम्र न लड़ने का ग़म रहा मुझ को अजब महाज़ पे हारा हुआ ज़फ़र था मैं हवा-ए-वक़्त ने पत्थर बना दिया वर्ना लचकती शाख़ से टूटा हुआ समर था मैं तमाम शहर में जंगल की आग हो जैसे हवा के दोश पे उड़ती हुई ख़बर था मैं