धुंध माज़ी की वो आब-ए-चश्म से धोने लगा आइने में देख कर मुझ को कोई रोने लगा मिल गए कुछ फूल सूखे कल किताबों में मुझे और किसी की याद का जंगल हरा होने लगा ख़्वाब मुझ को फिर परेशाँ कर रहे हैं आज-कल कौन जाने जिस्म के अंदर मिरे सोने लगा टूट कर जाते हुए तारों ने ये मुझ से कहा चाँद भी अब आसमाँ में नफ़रतें बोने लगा आ गया ग़ज़लों का मजमूआ' मिरा बाज़ार में दिल का सारा बोझ इक दीवान अब ढोने लगा प्यास कम होने लगी जब से समुंदर की 'रतन' बस उसी दिन से नदी का क़द बड़ा होने लगा