धूप ढल जाती है साए पे ज़वाल आता है मिटने लगता हूँ तो बनने का ख़याल आता है रात कट जाती है आँखों को चराग़ाँ करते दिन निकलता है तो चेहरे पे जमाल आता है पहले उड़ता है मोहब्बत के चमन में तन्हा फिर किसी शाम बहुत हो के निढाल आता है पहले जम जाता है आँखों के दरीचे में कहीं फिर मिरे ख़ून में इक दम से उछाल आता है जब मैं कहता हूँ मोहब्बत से मोहब्बत कर लो मुझ से कहता है कि इस पर भी ज़वाल आता है जंगलों से जो गुज़रता हूँ तो आती है सदा पेड़ पौधों को भी रोने का कमाल आता है मैं चला जाता हूँ सय्याद का साथी बन कर पीछे पीछे मिरे सय्याद का जाल आता है