इक हक़ीक़त हूँ अगर इज़हार हो जाऊँगा मैं जाने किस किस जुर्म का इक़रार हो जाऊँगा मैं काट लो अब के मुझे भी ख़्वाहिशों की फ़स्ल पर ज़िंदगी इक ख़्वाब है बेदार हो जाऊँगा मैं रफ़्ता रफ़्ता बाग़ की सब तितलियाँ खो जाएँगी और इक दिन ख़ुद से भी बेज़ार हो जाऊँगा मैं या तो इक दिन तोड़ डालूँगा हिसार-ए-आगही या किसी क़िस्से का इक किरदार हो जाऊँगा मैं अक्स-अंदर-अक्स आता है नज़र मुझ को 'कमाल' क्या किसी दिन आइने के पार हो जाऊँगा मैं