फ़ज़ा-ए-दहर में बेकार दीवाने नहीं आए समझने आए हैं दुनिया को समझाने नहीं आए ख़ुदावंदा न रखना उन बुतों से तू जुदा हम को कि हम जन्नत में उल्फ़त की सज़ा पाने नहीं आए ज़मीं से आसमाँ तक एक वीरानी सी थी तारी हुदूद-ए-कुन में जब तक उन के दीवाने नहीं आए ये उन की बज़्म है कुछ तेरा मय-ख़ाना नहीं साक़ी यहाँ अपने नहीं आए कि बेगाने नहीं आए बहारों को चमन में आए इक मुद्दत हुई लेकिन बहारें जिन पे क़ुर्बां हों वो दीवाने नहीं आए तड़प कर रह गया दिल बे-हिसी-ए-इश्क़ पर अक्सर हुज़ूर-ए-हुस्न जब उल्फ़त के नज़राने नहीं आए सुनाता किस तरह रूदाद-ए-उल्फ़त उन को ऐ 'मूसा' कि रोब-ए-हुस्न से होंटों पे अफ़्साने नहीं आए