फूली है शफ़क़ गो कि अभी शाम नहीं है है दिल में वो ग़म जिस का कोई नाम नहीं है किस को नहीं कोताही-ए-क़िस्मत की शिकायत किस को गिला-ए-गर्दिश-ए-अय्याम नहीं है अफ़्लाक के साए तले ऐसा भी है कोई जो सैद-ए-ज़बूँ माया-ए-आलाम नहीं है छिलकों के हैं अम्बार मगर मग़्ज़ नदारद दुनिया में मुसलमाँ तो हैं इस्लाम नहीं है ईमाँ नहीं मोमिन का मुकाफ़ात-ए-अमल पर उम्मीद-ए-करम क्या तमा-ए-ख़ाम नहीं है मस्जिद हो ख़राबात हो या कू-ए-बुताँ हो इस क़लब-ए-तपाँ को कहीं आराम नहीं है ऐ माह-विशो लाला-रुख़ो वस्ल की हम को ख़्वाहिश तो है बे-शक मगर इबराम नहीं है कैफ़ी हैं मय-ए-नाब-ए-ख़ुम-ए-मेहर-शुदा के हम को तलब-ए-दुर्द-ए-तह-ए-जाम नहीं है लफ़्ज़ों के दर-ओ-बस्त पे हर-चंद हो क़ादिर शाएर नहीं जो साहब-ए-इल्हाम नहीं है हर बात है 'ख़ालिद' में पसंदीदा ओ मतबू इक पैरवी-ए-रस्म-ओ-रह-ए-आम नहीं है