ग़म को ग़ज़लों में सजा कर हुस्न पैदा कर लिया मैं ने अपने दर्द का भी इक तमाशा कर लिया मैं ने भी मैं ठीक हूँ कह कर निगाहें फेर लीं तू ने भी इस झूट पर रस्मन भरोसा कर लिया जुस्तुजू तेरी थी फिर क्या धूप कैसी तिश्नगी वुसअ'त-ए-सहरा में इन आँखों को दरिया कर लिया इक त'अल्लुक़ याद का बचता है जिस पर बस नहीं बाक़ी जैसा तू ने चाहा मैं ने वैसा कर लिया कितनी ही बे-ख़्वाब रातें बद-हवासी शायरी ख़ुद को तेरी याद में 'जौन-एलिया' सा कर लिया मुतरिब-ए-साज़-ए-शिकस्ता शाइ'र-ए-आशुफ़्ता-सर इक तिरी फ़ुर्क़त में मैं ने ख़ुद को क्या क्या कर लिया