हाल पूछे जो कोई मेरा बता भी ना सकूँ क्या क़यामत है कि मैं होंट हिला भी न सकूँ उफ़ ये मजबूरी-ए-अय्याम का आलम हमदम रह-गुज़ारान-ए-शब-ए-ग़म को जगा भी न सकूँ ऐ जुनूँ हैफ़ मिरी सोख़्ता-सामानी पर वक़्त को मौत की ता'बीर बता भी न सकूँ सोचता हूँ रविश-ए-ख़ाम पे मातम कर लूँ बिजलियाँ आएँ तो सीने से लगा भी न सकूँ ठहर जा गर्दिश-ए-दौराँ कि मैं ऐसा तो नहीं बर्क़ की ज़द ये नशेमन जो बना भी न सकूँ अब तो अल्लाह निगहबाँ है वफ़ा केशों का चोट खाई है कुछ ऐसी कि दिखा भी न सकूँ दिल-शिकस्ता हूँ बहुत गर्दिश-ए-दौराँ है मगर उस से कट कर कोई काशाना बना भी न सकूँ कितनी मजबूरी है ऐ दोस्त कि ग़म-ख़्वारों को ग़म-ए-अय्याम की तफ़्सील बता भी न सकूँ कितनी बातें हैं सुनाने की मगर ऐ 'नाज़िश' हाए चाहूँ जो सुनाना तो सुना भी न सकूँ