हद्द-ए-नज़र तक वीराने हैं आबादी का नाम नहीं किस रस्ते पे क़दम बढ़ाऊँ कोई रस्ता आम नहीं जलता रेगिस्तान है हर-सू तुंद हवाएँ चलती हैं धू धू करती है दो-पहरी सुब्ह नहीं है शाम नहीं सारी उम्र गुज़ारी मैं ने ख़ून के आँसू पी पी कर ख़ुशियों के दो घूँट पिला दे ऐसा कोई जाम नहीं तन्हा हूँ मैं इस दुनिया में कोई नहीं है मेरे साथ किस को अब आवाज़ लगाऊँ कुछ भी तो अंजाम नहीं दर दर जा कर दस्तक दी है पर इक दर भी वा न हुआ हर-सू ख़ामोशी है 'बिस्मिल' कहीं से कुछ पैग़ाम नहीं