हमारे बीच अगरचे रहा नहीं कुछ भी मगर ये दिल है अभी मानता नहीं कुछ भी हम उस के ग़म को इन आँखों में ले के फिरते हैं मगर वो शख़्स हमें जानता नहीं कुछ भी ये कैसी धूल सी राहों में उड़ती फिरती है तू ऐ मुसाफ़िर-ए-जाँ क्या बचा नहीं कुछ भी हम अपने अपने दिल-ओ-जाँ की ख़ैर माँगते हैं ये इज्ज़ कुछ भी नहीं है अना नहीं कुछ भी बस एक मंज़र-ए-ख़ाली मैं ऊँघ लेता हूँ वो ख़ुश-नज़र है मगर देखता नहीं कुछ भी तू बोल उठता है हम को भला भी लगता है मगर तू यार मिरे सोचता नहीं कुछ भी कहीं पे हो कि न हो इज़्ज़त-ए-गुनह-गाराँ मगर यहाँ कोई तेरे सिवा नहीं कुछ भी गुमाँ तो ख़ैर मोहब्बत का था पर अब इस से ब-सू-ए-रंज-तलब वास्ता नहीं कुछ भी हमारे हाल पे तुम को मलाल तक भी नहीं तो क्या जो रब्त हमारा था, था नहीं कुछ भी कभी जो आओ तो हम को जो तुम से कहनी है यूँही सी बात है अब मुद्दआ' नहीं कुछ भी