हम-नशीनों में हमारा हम-नवा कोई नहीं आश्ना तो हैं बहुत दर्द-आश्ना कोई नहीं ऐ मसीहा मौत से कर ज़िंदगानी का इलाज हो रहे वो ग़ैर के अब आसरा कोई नहीं बुत-कदे से छूट कर ऐसा हुए बे-ख़ानुमाँ जैसे ज़ेर-ए-आसमाँ मेरा ख़ुदा कोई नहीं ख़ुद-नुमाई में भी वो महबूब है मस्तूर है देखते हैं सब मगर पहचानता कोई नहीं बुर्रिश-ए-तेग़-ए-अदा-ए-दोस्त का एहसास है अब रहीन-ए-मिन्नत-ए-तीर-ए-क़ज़ा कोई नहीं है तिरी मश्क़-ए-सितम का रंग अगर यूँही तो फिर देखा लेना एक दिन तेरे सिवा कोई नहीं पूछते हैं मुद्दआ' मुझ से अदू के सामने मुद्दआ' ये है कि कह दूँ मुद्दआ' कोई नहीं बा-वफ़ा इतनी जफ़ा पर कौन है मेरे सिवा तुझ से बढ़ कर बद-गुमाँ ऐ बेवफ़ा कोई नहीं बढ़ गया है आज कल जौर-ए-बुताँ कुछ इस क़दर दस्त-गीर-ए-बंदगाँ गोया ख़ुदा कोई नहीं ले के बार-ए-ज़िंदगी कब तक कोई फिरता रहे राहज़न ही लूट ले जब रहनुमा कोई नहीं जान कर 'बेख़ुद' हुआ ख़ुद दुश्मन अपनी जान का फिर गिला क्यूँ दोस्तों से है मिरा कोई नहीं