हर एक वा'दे पे उन के यक़ीन लाए हैं बड़े ख़ुलूस से हम ने फ़रेब खाए हैं ग़मों को देखने वाले हमारा ज़र्फ़ भी देख हुजूम-ए-ग़म में भी हम रह के मुस्कुराए हैं उठा हूँ बज़्म से उन की तो यूँ हुआ महसूस कि जैसे ख़ुद वो मिरे साथ साथ आए हैं हो जैसे क़ब्ज़े में दोनों जहाँ का सरमाया हम उन के दर्द-ए-मोहब्बत को यूँ छुपाए हैं सिवाए उन के मुझे कुछ नज़र नहीं आता कुछ इस तरह वो नज़र में मिरी समाए हैं फ़रोग़-ए-महर-ओ-मह-ओ-अंजुम-ओ-गुल-ओ-ग़ुंचा जमाल-ए-यार के कितने हसीन साए हैं हम एक ज़र्रा-ए-ख़ाकी में फिर भी ऐ 'मूसा' फ़राज़-ए-तूर से बिजली चुरा के लाए हैं