हाशिए पर कुछ हक़ीक़त कुछ फ़साना ख़्वाब का इक अधूरा सा है ख़ाका ज़िंदगी के बाब का रंग सब धुँदला गए हैं सब लकीरें मिट गईं अक्स है बे-पैरहन उस पैकर-ए-नायाब का ज़र्रा ज़र्रा दश्त का माँगे है अब भी ख़ूँ-बहा मुँह छुपाए रो रहा है क़तरा क़तरा आब का साँप बन कर डस रही हैं सब तमन्नाएँ यहाँ कारवाँ आ कर कहाँ ठहरा दिल-ए-बे-ताब का कोह-ए-तन्हाई का 'शाहिद' ज़र्रा ज़र्रा टूटना पारा पारा हो गया है अब जिगर सीमाब का