हवा-ए-बे-तरफ़-ओ-फ़स्ल-ए-बे-समर गुज़री तिरे बग़ैर गुज़रना ही क्या मगर गुज़री शरीक-ए-शोरिश-ए-दुनिया हूँ और सोचता हूँ कि शम-ए-बज़्म-ए-तरब से भी चश्म-ए-तर गुज़री न थी पहाड़ से कुछ कम मगर मुसीबत-ए-उम्र तिरे ख़याल में गुज़री तो मुख़्तसर गुज़री कोई भी काम न आया शिकस्ता-बाली में सबा भी शाख़-ए-नशेमन को काट कर गुज़री मिरी निगाह ने ख़्वाबों में ख़ुद को पहचाना कि जागते में जो गुज़री वो बे-बसर गुज़री ज़माने-भर से अलग हो के मैं उधर को चला जिधर जिधर से मिरे दिल की रहगुज़र गुज़री