हज़ार ग़म हों तो फिर इंतिख़ाब कैसे करूँ दरीदा दिल को मैं नज़्र-ए-अज़ाब कैसे करूँ मैं उस को भूल चुका था कई बरस के बाद मिली है वस्ल की साअ'त हिसाब कैसे करूँ वही है इश्क़ की मंज़िल वही वफ़ा का सफ़र खुली जो आँख ज़रा ज़िक्र-ए-ख़्वाब कैसे करूँ ग़म-ए-हयात की अब कोई इंतिहा ही नहीं मैं अपनी ज़ात को वक़्फ़-ए-सराब कैसे करूँ ये शहर-ए-दर्द है ऐ दोस्तान-ए-दिल-ज़दगाँ वफ़ा शुमार करूँ एहतिसाब कैसे करूँ वही है अज़्मत ओ जाह ओ हशम वही मंसब फ़क़ीह-ए-शहर वही है ख़िताब कैसे करूँ 'सबा' वो शख़्स अभी तक है मुझ से बेगाना मैं उस की ज़ात से फिर इंतिसाब कैसे करूँ