इक ख़ल्क़ जो हर सम्त से आई तिरे दर पर आया नज़र-अंदाज़ ख़ुदाई तिरे दर पर थी जिस की तमन्ना दिल-ए-मुश्ताक़ को हर दम वो चीज़ अगर पाई तो पाई तिरे दर पर उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें डर है कि न हो जाए लड़ाई तिरे दर पर देखी जो यहाँ आ के झड़ी अब्र-ए-करम की सब दिल की लगी हम ने बुझाई तिरे दर पर इस नफ़स ही कम-बख़्त ने रोका था 'शरफ़' को दुश्वार न थी वर्ना रसाई तिरे दर पर