इस क़दर भी दिल नहीं टूटा हुआ कुछ सिमट सकता न हो बिखरा हुआ कब तलक ख़ुद को यही कहता रहूँ दिल पे मत ले जो हुआ अच्छा हुआ कौन से मंज़र पे ठहरे आँख भी सब नज़र आता है बस देखा हुआ हम यक़ीं कर के उसे पढ़ते रहे जो भी था हर्फ़-ए-गुमाँ लिक्खा हुआ सब मरासिम रख गया दहलीज़ पर दिल गिरफ़्तार-ए-अना होता हुआ जाने किस ग़म को रिहाई दे रहे आँख में जो अश्क है आया हुआ वक़्त कितने ज़ोर से हँसने लगा इश्क़ जब शर्तों पे आमादा हुआ हाए तर्क-ए-इश्क़ पर उस का ये तंज़ देर ही से हाँ मगर अच्छा हुआ अब उसे ये भी नहीं है याद तक है वो किस किस को कहाँ भूला हुआ वो जिसे कुछ भी न होता था उसे बाद तेरे पूछ मत क्या क्या हुआ चल 'अमर' उस शख़्स को जा कर मिलें वो नहीं मिलता अगर तो क्या हुआ