जब हम-कलाम हम से होता है पान खा कर किस रंग से करे है बातें चबा चबा कर थी जुम्लातन लताफ़त आलम में जाँ के हम तो मिट्टी में अट गए हैं इस ख़ाक-दाँ में आ कर सई ओ तलब बहुत की मतलब के तईं न पहुँचे नाचार अब जहाँ से बैठे हैं हाथ उठा कर ग़ैरत ये थी कि आया उस से जो मैं ख़फ़ा हो मरते मुआ पे हरगिज़ ऊधर फिरा न जा कर क़ुदरत ख़ुदा की सब में ख़लउल-इज़ार आओ बैठो जो मुझ कने तो पर्दे में मुँह छुपा कर अरमान है जिन्हों को वे अब करें मोहब्बत हम तो हुए पशीमाँ दिल के तईं लगा कर मैं 'मीर' तर्क ले कर दुनिया से हाथ उठाया दरवेश तू भी तो है हक़ में मिरे दुआ कर