जब नज़र जा न सके हद्द-ए-नज़र से आगे कौन सोचे कि है कुछ और भी घर से आगे मंज़िल-ए-इश्क़ में हम को कोई ऐसा न मिला जिस की मंज़िल हो तिरी राहगुज़र से आगे जब तलक साए में बैठे हो ग़नीमत जानो दूर तक धूप का सहरा है शजर से आगे जो तिरे दर से उठे हैं उन्हें मा'लूम कहाँ कूचा-ए-दर-ब-दरी है तिरे दर से आगे मंज़िलें मुंतज़िर-ए-चश्म-ए-तमाशा ही रहें क़ाफ़िले जा न सके गर्द-ए-सफ़र से आगे 'ख़ावर' इस शहर में हम अहल-ए-हुनर पर ये खुला एक शय बे-हुनरी भी है हुनर से आगे