ज़िंदगी ही ज़िंदगी चारों तरफ़ है आँख हो तो रौशनी चारों तरफ़ है क्या ज़मीं क्या आसमाँ क्या दश्त-ओ-दरिया आदमी की बरतरी चारों तरफ़ है एक मरकज़ पर ठहरता ही नहीं है ज़ेहन की आवारगी चारों तरफ़ है देखिए तो है उजाला ही उजाला सोचिए तो तीरगी चारों तरफ़ है आँख से ओझल तिरा चेहरा है लेकिन इक अलामत सी तिरी चारों तरफ़ है कुछ न कुछ है आज-कल में होने वाला इक मुकम्मल ख़ामुशी चारों तरफ़ है छोड़ कर जाते हो घर 'मासूम' साहब सोच लो दुनिया यही चारों तरफ़ है