जज़्बों की हर एक कली अंधी निकली और मोहब्बत उस से भी पगली निकली मैं भी तोड़ नहीं पाई झूटी रस्में मैं भी बस इक मा'मूली लड़की निकली तुम मुझ से नफ़रत कैसे कर पाओगे मैं तो अपने झूट में भी सच्ची निकली वो घर जो उजला उजला सा लगता था झाड़ा पोंछा तो कितनी मिट्टी निकली सोचा था उस से हर बात छुपाऊँगी मैं भी वा'दों की कितनी कच्ची निकली जो अपने हाथों से फाड़ के फेंकी थी दिल में इक तस्वीर वही रक्खी निकली