जिस की तलब थी मुझ को वो राहत कहाँ मिली तुम मिल गए तुम्हारी मोहब्बत कहाँ मिली क्या क्या दिए हैं चश्म-ए-तसव्वुर ने भी फ़रेब मेरे ख़याल से तिरी सूरत कहाँ मिली दिल का दयार-ए-हुस्न में जा कर मिला सुराग़ खोई कहाँ थी और ये दौलत कहाँ मिली वो बज़्म-ए-मय-कदा हो कि ख़ल्वत-गह-ए-हरम दिल को ख़याल-ए-दोस्त फ़ुर्सत कहाँ मिली उस ने तो एक बार भी देखा न प्यार से मुझ को मिरी वफ़ाओं की क़ीमत कहाँ मिली तलवों से ख़ार चुनते रहे हैं तमाम उम्र आवार्गान-ए-शौक़ को राहत कहाँ मिली कहते हैं जिस को इश्क़ मुक़द्दर की बात है सब को ख़ुदा के घर से ये दौलत कहाँ मिली जी तो बहल गया तिरी महफ़िल में कुछ मगर मुझ को ग़म-ए-हयात से फ़ुर्सत कहाँ मिली गुज़रा है दर्द हद से तो हँसने लगा हूँ मैं 'नासिर' वगर्ना मुझ को मसर्रत कहाँ मिली