जो लोग भी दर से तिरे मंसूब रहे हैं फ़िरदौस के वो फिर कहाँ मतलूब रहे हैं हासिल है शरफ़ जिन को गदाई का तुम्हारी सब लोग उन्हीं के यहाँ मग़्लूब रहे हैं दर-अस्ल वही लोग तुम्हें पार मिलेंगे जो आग के दरिया में अभी डूब रहे हैं अशआ'र की सूरत में भला कैसे बयाँ हो जल्वे दर-ए-जानाँ के बहुत ख़ूब रहे हैं छूटेगा नहीं सब्र का दामन कि हमारे अस्लाफ़ कभी हज़रत-ए-याक़ूब रहे हैं तुम चाहो अगर बाँट लो हम से ग़म-ए-हिज्राँ हम भी तो किसी के कभी महबूब रहे हैं जिन से भी नज़र फेर ली रब ने मिरे 'अफ़ज़ल' नज़रों में ज़माने की वो मा'यूब रहे हैं