जो सूली के मुक़द्दर में रखे थे हम ऐसे बद-नसीबों के गले थे हमारा वक़्त पूरा हो रहा था किसी के मुँह पे बारह बज रहे थे अज़िय्यत लुत्फ़ देने लग गई थी सो नाख़ुन से कलाई काटते थे मोहब्बत मुझ को काफ़िर कर रही है मिरे दोनों फ़रिश्तों के गिले थे ज़मीं सोना उगलने लग पड़ी थी मिरे हाथों के छाले बढ़ रहे थे शहंशह जब सितम ढाने पे आया ख़ुदा चुप था मगर हम तो लड़े थे कोई सुंदर पुजारन मर गई थी तभी तो देवता रोए हुए थे कोई तख़्ती नहीं थी शहर-भर में कि चौराहों पे बस मुर्दे गड़े थे