कभी मुक़द्दर जो ये इनायत करे तो क्या हो बिछड़ के मुझ से वो मेरी चाहत करे तो क्या हो वो जिस की सोहबत मुझे सुहूलत से मिल गई है वो शख़्स मुझ से अगर मोहब्बत करे तो क्या हो तमाम शिकवों को मेरे हँस कर मिटा रहा है कभी वो मुझ से कोई शिकायत करे तो क्या हो जो हँस के राज़ी रहे ख़ुदा की हर इक रज़ा में फिर ऐसा बंदा कभी बग़ावत करे तो क्या हो ख़ुदा के हामी जो मुझ से बिगड़े हैं सोच रक्खें वो रोज़-ए-महशर मिरी हिमायत करे तो क्या हो