क़िस्से बचपन के जो इक रोज़ सुहाने निकले दुश्मनों में ही कई दोस्त पुराने निकले कर लिया तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का इरादा तो उसे मेरी हर बात में फिर कितने बहाने निकले सूखती काश्त पे इक रोज़ जो बरसा पानी नन्हे बच्चे सभी गाँव के नहाने निकले क़ाफ़िले यादों के यक-लख़्त दबे पाँव से मेरी आँखों से मिरी नींद चुराने निकले शम्अ इक सम्त जली और उधर परवाने अपने ही ख़ून के दरिया में नहाने निकले रुख़ जो पज़मुर्दा किसी शोख़ का देखा तो लगा कैसे गुज़री है शब-ए-ग़म ये बताने निकले 'नज़्र' फिर आया है इक रस्म निभाने का दिन सज सँवर के सभी रावन को जलाने निकले