कपड़ों में मकानों में निवालों में पड़े हैं सब लोग इन्हीं तीन ख़यालों में पड़े हैं हम अहल-ए-नज़र बंद हैं तारीक घरों में अंधे हैं कि दिन-रात उजालों में पड़े हैं रोने से लकीरें मिरे चेहरे पे बनी हैं हँसने से गढ़े आप के गालों में पड़े हैं तुम साथ न थे जब तो फ़क़त अश्क धरे थे अब ख़्वाब भी आँखों के पियालों में पड़े हैं इस क़ौम पे ज़िल्लत की जमी गर्द तो क्या है पाकीज़ा सहीफ़े भी तो जालों में पड़े हैं चाँदी के हसीं जाम में डूबे थे जो कल शब सुनते हैं 'नबील' आज वो नालों में पड़े हैं