करम भी हुस्न के बन कर इताब गुज़रे हैं न पूछ इश्क़ पे कितने अज़ाब गुज़रे हैं बड़े क़रीब से देखा है मैं ने आज उन को वो सामने से मिरे बे-हिजाब गुज़रे हैं निज़ाम-ए-इश्क़ तग़य्युर-पज़ीर हो न सका वगर्ना यूँ तो बहुत इंक़लाब गुज़रे हैं फिसल गए हैं जहाँ पाँव अहल-ए-दानिश के वहाँ से अहल-ए-जुनूँ कामयाब गुज़रे हैं सभी ने शोख़ियाँ बख़्शी हैं कुछ तख़य्युल को मिरे क़रीब से जितने शबाब गुज़रे हैं तिरी निगाह-ए-तग़ाफ़ुल तो ख़ूब वाक़िफ़ है मिरी हयात में कितने सराब गुज़रे हैं हम अहल-ए-दिल तिरी रुस्वाइयों के पेश-ए-नज़र जिधर से गुज़रे ब-सद इज्तिनाब गुज़रे हैं तुम्हारे रू-ए-दरख़्शाँ की जब भी याद आई मिरी नज़र से मह-ओ-आफ़्ताब गुज़रे हैं फ़रोग़-ए-हुस्न-ए-बहाराँ तो देखिए 'नासिर' चमन से शो'ला-ओ-गुल बे-नक़ाब गुज़रे हैं