करता है कौन दूर जो हो जाए कुछ जुनूँ बिकता है किस दुकान पे आख़िर दिली सुकूँ आ जाए सामने तो निकालूँ ग़ुबार भी उलझूँ तो फ़ासले से भला क्या मैं कह सकूँ मिल जाए इक ख़याल की मोहलत ज़रा मुझे इस काएनात-ए-वक़्त के बख़िये उधेड़ दूँ हैं किस क़दर हसीन उड़ानें परिंद की मुझ को भी पंख मिल सकें मैं भी तो कुछ उड़ूँ रस्ता बुझा हुआ है हवाओं के ज़हर में तो 'शाह' क्या ज़रूर कि मैं ख़ुद-कुशी करूँ