कौन कहता है मुसीबत पर कभी मातम न कर मौत है इक पल की सारी ज़िंदगी मातम न कर ग़म न कर उन के दरीचों पर चराग़ाँ हो गया चलती फिरती है सदा से रौशनी मातम न कर कर्बला से ले के रेगिस्तान-ए-सीनाई तलक मिट नहीं सकती हमारी तिश्नगी मातम न कर फिर से मोमिन आतिश-ए-नमरूद में डाले गए है यही सुन्नत ख़लीलुल्लाह की मातम न कर कुफ़्र है इक मिल्लत-ए-वाहिद ये रौशन हो गया मुस्तक़िल है रिश्ता-ए-ईमान भी मातम न कर किश्त-ए-मुस्लिम को हमेशा ख़ून से सींचा गया एक दिन होगी यही खेती हरी मातम न कर ये भी क्या कम है बसीरत की नज़र हासिल हुई दोस्तों ने की जो तुझ से दुश्मनी मातम न कर 'सय्यदी' तारीख़ में इक दो बरस कुछ भी नहीं कश्मकश है इज़्तिराब-ए-दाइमी मातम न कर