ख़ुदा तू इतनी भी महरूमियाँ न तारी रख हमारे जिस्म में इक रूह तो हमारी रख इसी बहाने ही शायद तिरा ख़याल रखे तू अपने आप पे दुनिया की कुछ उधारी रख तमाम ख़्वाब तिरे गल न जाएँ इस में ही यूँ हर समय न मिरे यार आँखें खारी रख लहू से ब्याज चुकाना पड़ेगा अब तुझ को दिया ये मशवरा किस ने कि जाँ उधारी रख तलाश करना पड़े हँसने का सबब तुझ को ऐ ज़िंदगी न तू इतनी भी होशियारी रख बिखर रही है मगर क्या पता सँभल जाए तू इस कहानी में अब दास्ताँ हमारी रख न जाने कौन विभीषन उसे बता आया है मेरी जान उसूलों में चोट जारी रख क़लम उदास है सहमे हुए हैं सारे वरक़ ग़म-ए-हयात न यूँ शाइ'री पे तारी रख जुदा हुआ है तो सामान भी अलग कर ले मुझे फ़क़ीरी दे और अपनी ताज-दारी रख वफ़ा ख़ुलूस दग़ा झूट सब मैं देखूँ तो तू मेरे सामने हर चीज़ बारी बारी रख मशीनी दौर में जज़्बात क्या बयाँ करना छुपा के यार तबस्सुम में बे-क़रारी रख कुछ एक राज़ तो वाजिब हैं इस जहाँ के लिए हर एक बात न 'आज़ाद' इश्तिहारी रख