ख़िज़ाँ को कैफ़-ए-बहाराँ तो हो गया मालूम मगर चमन पे जो गुज़री है उस को क्या मालूम तलाश करता हूँ मुद्दत से अपने आप को मैं कहाँ पे टूट गया खो गया ख़ुदा मालूम मुझे ये नाज़ कि हर्फ़-ए-वफ़ा पे क़ाएम हूँ उन्हें ग़ुरूर कि उल्फ़त का मुद्दआ' मालूम ख़याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया में भेजने वाले भटक रहा हूँ अंधेरे में तुझ को क्या मालूम वो लोग वक़्त के धारे बदलते रहते हैं जिन्हें ये वक़्त का अंदाज़-ओ-सिलसिला मालूम वो एक शख़्स जो काँटों पे रक़्स करता था उसी का ख़ून है गुलशन की इब्तिदा मालूम चलो कि आज उसी मह-जबीं की बात करें जिसे वफ़ा का सलीक़ा न है वफ़ा मालूम उदास उदास से चेहरे बुझे बुझे से बदन ये कैसी बस्ती में मैं आ गया ख़ुदा मालूम किताब-ए-ज़ीस्त में लिक्खा गया है सुर्ख़ी से ग़म-ए-हयात है 'सादिक़' का अज़्म-ए-ना-मा'लूम