किसी जुनूँ के सताए को कौन छोड़ता है जनाब-ए-दिल के हराए को कौन छोड़ता है मैं तेरी सम्त जो लपका लपकना बनता था कि तपती धूप में साए को कौन छोड़ता है वो वक़्त हो कि मुक़द्दर ज़माना हो कि फ़लक किसी नज़र के गिराए को कौन छोड़ता है मैं एक आँख से निकला हूँ किस तरह मत पूछ ख़ुशी से अपनी सराए को कौन छोड़ता है तुझे कहा नहीं कुछ तो इसे शराफ़त जान वगरना हाथ में आए को कौन छोड़ता है