किसी की बात कोई बद-गुमाँ न समझेगा ज़मीं का दर्द कभी आसमाँ न समझेगा समुंदरों पे जो चलता रहा है बे-मक़्सद कहाँ हैं पाँव के नक़्श-ओ-निशाँ न समझेगा उसे जुनून है लफ़्ज़ों से खेलने का बहुत हमारी सादा सी लेकिन ज़बाँ न समझेगा ये सब हैं अहल-ए-सियासत इन्ही की साज़िश है यही है सच जिसे सारा जहाँ न समझेगा जो मेरी ज़ाहिरी सूरत से खा रहा है फ़रेब यक़ीन जानिए दर्द-ए-निहाँ न समझेगा मता-ए-लौह-ओ-क़लम लूटता रहा है जो लहू-लुहान हैं क्यूँ उँगलियाँ न समझेगा कमाल-ए-ज़ब्त के बा-वस्फ़ कोई भी 'आज़म' ये कैसे फट गया आतिश-फ़िशाँ न समझेगा