मय का मुश्ताक़ है दिल आँख का सौदाई है जज़्बा-ए-शौक़ ब-अंदाज़ा-ए-रानाई है अंजुमन में भी किसी अंजुमन-आरा के बग़ैर दिल से ता-हद्द-ए-नज़र आलम-ए-तन्हाई है शहर-ए-गुल अंजुमन-ए-माह-वशाँ कू-ए-मुग़ाँ दिल कहीं भी हो मगर तेरा तमन्नाई है जब भी हम अबतरी-ए-हाल से मायूस हुए ज़ीस्त माज़ी की हसीं याद उठा लाई है रंग पे दम से है परवानों के सारा माहौल शम्अ को वाहिमा-ए-अंजुमन-आराई है शहर में रह के ये एहसास हुआ है कि ख़ुशी दूर देहात में बजती हुई शहनाई है हाए वो हुस्न कि चढ़ती हुई किरनों की उड़ान आह ये शौक़ कि टूटी हुई अंगड़ाई है आँसूओं से किया सराब दिलों को 'शौकत' नहर निकली है तो इस थल में बहार आई है