मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ तो पहले एक ग़ज़ल तेरे नाम लिखता हूँ बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन मैं फिर भी सुब्ह के चेहरे पे शाम लिखता हूँ चले तो टूटें चट्टानें रुके तो आग लगे शमीम-ए-गुल को तो नाज़ुक-ख़िराम लिखता हूँ घटाएँ झूम के बरसीं झुलस गई खेती ये हादसा है ब-सद-ए-एहतिराम लिखता हूँ ज़मीन प्यासी है बूढ़ा गगन भी भूका है मैं अपने अहद के क़िस्से तमाम लिखता हूँ चमन को औरों ने लिक्खा है मय-कदा बर दोश मैं फूल फूल को आतिश-ब-जाम लिखता हूँ न राब्ता न कोई रब्त ही रहा 'बेकल' उस अजनबी को मगर मैं सलाम लिखता हूँ